बंगाली संस्कृति की अनूठी पहचान: श्रद्धा, कला और परंपरा का संगम है देल पूजा

बंगाली संस्कृति की अनूठी पहचान: श्रद्धा, कला और परंपरा का संगम है देल पूजा

स्थान : गदरपुर

बंगाली सभ्यता की समृद्ध विरासत और सांस्कृतिक विविधता का प्रतीक देल पूजा आज भी उतनी ही आस्था और उल्लास के साथ मनाई जाती है, जितनी सदियों पहले मनाई जाती थी। देल पूजा केवल एक धार्मिक अनुष्ठान नहीं, बल्कि बंगाल की गहराई में रची-बसी लोक परंपराओं, भक्ति और लोकनाट्य का जीवंत उत्सव है।

इस पूजा की शुरुआत चड़क पूजा के आरंभ के साथ होती है। सज-धज कर निकले हुए श्रद्धालु, भगवान शिव और मां काली के विभिन्न प्रतिरूपों में ग्रामीणों के बीच जाकर देश, समाज और परिवार की सुख-समृद्धि की कामना करते हैं।

पूरे महीने चलने वाली इस पूजा का सबसे भावनात्मक और समर्पित पहलू है— 16 सदस्यों की विशेष टोली, जो एक महीने तक नंगे पैर चलकर इस पूजा में भाग लेती है। यह त्याग और तपस्या बंगाली संस्कृति की गहराई और ईश्वर के प्रति उनकी अगाध श्रद्धा को दर्शाता है।

देल पूजा का एक विशेष आकर्षण है जात्रा गान, जो ग्राम्य बंगाल की जीवंत लोककला को मंच पर प्रस्तुत करता है। इन लोकगीतों के माध्यम से संस्कृति, परंपराएं और धार्मिक गाथाएं जीवंत होती हैं। गांव-गांव घूम कर टीम लोगों के साथ संवाद करती है, भक्ति गान प्रस्तुत करती है, और समुदाय को एकसूत्र में पिरोती है।

श्रद्धालुओं को प्रसाद वितरित किया जाता है, जिसमें सामूहिक सहयोग की भावना भी देखने को मिलती है। ग्रामीणों द्वारा प्रदान की गई सहायता इस पूजा को मंगलमय बनाने में सहायक होती है। देल पूजा के आयोजन में सामूहिकता, समर्पण और संस्कृति का अद्भुत मेल दिखाई देता है।

हर वर्ष यह पूजा बंगाली इलाकों में बड़े धूमधाम से मनाई जाती है और यह पुरानी सभ्यता की जड़ों को छूते हुए आज के आधुनिक युग में भी बंगाली समुदाय की पहचान और गौरव का प्रतीक बनी हुई है।