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रिपोटर-संजय कुंवर
स्थान-सुराईठोटा
चमोली जिले की सीमांत धौली गंगा घाटी के दुर्गम ऋतु प्रवासी द्रोणागिरी सुराईठोटा घाटी के बीहड़ पठारी वीरान धूरों की विषम भौगोलिक परिस्थितियों में सीमित साधनों के साथ तिब्बत व्यापार की आखिरी निशानी पालतू याकों के झुंड की देखभाल करने वाले याक सेवक बसंत डुंगरियाल्र को पिछले एक साल से मानदेय नहीं मिला है |
जिसके चलते उनको भारी आर्थिक तंगी झेलनी पड़ रही है, बसंत सिंह ने बताया कि बिना मानदेय के परिवार का भरण पोषण करना मुश्किल हो रहा है, उनका कहना है, कि वो इस विकट परिस्थिति में जान जोखिम में डाल इन याको की सेवा में लगे है लेकिन उन्हें इसका मेहनतनामा समय पर नही मिल पा रहा है, जिससे वो काफी निराश है, वहीं इस संबंध में जब चमोली जिले के चीफ वेटनेटरी ऑफिसर डा०पी, नाथ०से संपर्क साधा गया, तो उनका कहना था की विभाग द्वारा पहले के तहत इनका मानदेय पीबीएडीपी के तहत दिया जाता था अब वो योजना बंद हो गई | लिहाजा अब दूसरे मद से जल्द कोई व्यवस्था कर बसंत सिंह को उनका एक मुश्त मानदेय देने की कार्यवाही गतिमान है, दरअसल पशुपालन विभाग चमोली की ओर से इन याकों की निगरानी का जिम्मा स्थानीय “याक सेवक”बसंत सिंह डुंगरियाल को रखा है |
जो विषम परिस्थितियों में शीतकाल तक 12 माह इन याको के झुंड की हिफाजत कर रहे है,साथ ही उन्हें नमक चारा भी देते है। लेकिन इतनी मेहनत का काम और जान जोखिम में डाल कर इन याकों की देखभाल करने वाले बसंत सिंह को पशुपालन विभाग से बस शिकायत है, तो ये कि उनके इस काम के एवज में जो मानदेय उन्हें दिया जाता है | उसको तो समय पर भुगतान कर दे विभाग, द्रोणागिरी घाटी से निचले इलाकों की और याको के झुंड को ले जाते समय उन्होंने बताया, कि पशुपालन विभाग उन्हें जो मानदेय देता है | वोइस जोखिम भरे कार्य के सामने बहुत कम है | लेकिन जो मिल रहा वो भी समय पर नही मिल रहा है करीब साल भर होने को है | उन्हे अबतक मानदेय नहीं मिला है तो ऐसे में कैसे खाली हाथ भूखे पेट परिवार का पालन पोषण होगा, मेरे और केसे में इन याको की देखभाल कर रहा में ही जानता हू लिहाजा उनका जल्द मानदेय दिलाने की गुहार भी लगाई है,,
बता दें कि सीमांत जोशीमठ क्षेत्र की द्रोणागिरी वैली और इसके आसपास के जंगलों में इन याकों का झुंड आसानी से देखा जा सकता है, वही शीतकाल के दौरान भारी बर्फबारी होने पर यह झुंड निचले स्थानों सुराई थोटा सूकी लाता गांव के जंगलों तक पहुंच जाता है। हालांकि अभी इन याकों के कुनबे में जहां बीते छह सालों के दौरान 14 याक हिमस्खलन व आपदा में अपनी जान गवां चुके हैं।
वहीं वर्ष 2019 में 11 मार्च को भार “हिमस्खलन“ के चलते द्रोणागिरी के जंगलों में आठ याकों की भी मौत हो गई थी। जबकि, वर्ष 2015 में छह याकों को तब जान गंवानी पड़ी, जब बर्फ से बचने के लिए वो द्रोणागिरी गांव की एक गोशाला में जा घुसे और भारी बर्फबारी से गोशाला जमींदोज हो गई |पशु पालन विभाग के सूत्रों के अनुसार फिलहाल द्रोणागिरी घाटी में करीब 10 से 11याक मौजूद हैं। दरअसल वर्ष 1962 में नीती और माणा पास से भारत-तिब्बत की मंडियों में नमक, सीप, मूंगा समेत अन्य खाद्य पदार्थों का व्यापार चरम पर था। इन ऊंचे पठारी धूरों से तिब्बती व भोटिया जनजाति के व्यापारी इन्ही पालतू याकों से सामान के साथ आवागमन करते थे। क्युकी सीमांत क्षेत्र में ऊंचे पठारी बीहड़ धुरों में अत्याधिक ठंड व प्रतिकूल मौसम होने के कारण सामान ढोने के लिए घोड़ा-खच्चर या अन्य मालवाहक जानवरों का उपयोग नहीं हो पाता था,