गढ़वाल से कुमाऊं कैसे पहुंची मां नंदा देवी, पुरे उत्तराखंड को एक सूत्र में पिरोने की है कहानी

गढ़वाल से कुमाऊं कैसे पहुंची मां नंदा देवी, पुरे उत्तराखंड को एक सूत्र में पिरोने की है कहानी

उत्तराखंड

ओ नंदा- सुनंदा तू दैण है जाए,,,,,,,,माता गौरी अंबा तू दैण है जाए….. यानि कुमाऊं के लोग इस गीत से माता नंदा – सुंनदा को याद करते हैं. उत्तराखंड की कुल देवी यानि माता नंदा- सुंनदा, नंदा देवी महोत्सव या जिसे हम नंदाष्टमी के नाम से भी जानते हैं. उत्तराखंड के कुमाऊं क्षेत्र अल्मोड़ा और नैनीताल में सितम्बर के महीने में नंदाष्टमी का उत्सव धूमधाम से मनाया जाता है, मां नंदा और सुनंदा की उपासना के लिए केले के पेड़ यानि कदली वृक्ष से खास तरह की मूर्तियां बनाई जाती हैं.

भाद्र शुक्ल पक्ष की अष्टमी को परंपरागत व धार्मिक माहौल में मनाया जाने वाला नंदाष्टमी पर्व पूरे उत्तराखंड को एक सूत्र में पिरोता है। नंदा देवी मेला सितंबर के महीने में मनाया जाने वाला एक सांस्कृतिक उत्सव है. यह त्यौहार अल्मोड़ा, नैनीताल, बागेश्वर, भवाली और जोहार के दूर-दराज के इलाकों में मनाया जाता है।  मान्यता है कि मां नंदा आज भी भक्तों को स्वप्नों में आकर दर्शन देती हैं साथ ही उनकी मनोकामना भी पूरी करती हैं. कुमाऊं के पहले कमिश्नर ट्रेल से लेकर वर्तमान कमिश्नर आईएएस दीपक रावत भी अपने परिवार पर माता नंदा सुनंदा का आशीर्वाद मानते हैं. 

नंदा देवी कुमाऊँ के चंद राजाओं की कुल देवी और सुनंदा उनकी छोटी बहन थीं। उत्तराखंड के चमोली में स्थित तभी से उस चोटी का नाम नंदा देवी पर्वत और उसके पश्चिम में स्थित चोटी का नाम सुनंदा पड़ गया. इसके बाद दोनों बहनों को दुर्गा का अवतार मानकर पूजा जाने लगा। आज नंदा देवी को शक्ति की देवी के रूप में पूजा जाता है और पूरे उत्तराखंड में कई जगह देवी के मंदिर भी स्थापित हैं. 15 वीं शताब्दी कुमाऊं की उत्पत्ति और चंद शासकों के अतीत स्वर्णकाल का मूक दर्शक रहा. साल 1563 तक चम्पावत चंद राजाओं की राजधानी रही. इसके बाद चंद राजाओं की राजधानी अल्मोड़ा स्थानांतरित हो गई.


दरअसल, 1670 के आसपास कुमाऊं के चंद वंशीय शासक राजा बाज बहादुर चंद का शासन था राजा ने तब गढ़वाल के बधाणगढ़ में आक्रमण किया, जूनागढ़ के किले को जीतने के बाद रण देवी के रूप में नंदा की प्रतिमा को अपने साथ ही कुमाऊं ले लाए.  अल्मोड़ा पहुंचने से पूर्व राजा और सैनिकों ने नंदा देवी के डोले के साथ गरुड़ में विश्राम किया। दूसरे दिन जब राजा राजगुरु के साथ डोले में रखी प्रतिमा की पूजा करने आए तो मूर्ति दो भागों में खंडित हो चुकी थी.

विचार-विमर्श के बाद इसका एक भाग बैजनाथ और दूसरा भाग अल्मोड़ा में स्थापित किया गया है। मूर्ति के एक भाग को बैजनाथ में स्थापित कर कोटमाई के नाम से प्रतिष्ठा की गई.  जबकि दूसरी मूर्ति को राजा बाज बहादुर चंद ने अल्मोड़ा के राजमहल (पुराने कलेक्ट्रेट) परिसर में अपनी कुलदेवी गौरा के साथ स्थापित किया। वर्ष 1857 तक इसका पूजन चम्पावत वंश के चंद राजाओं द्वारा किया जाता रहा।  अंतिम राजा आनंद सिंह की अविवाहित अवस्था में मौत हो जाने के बाद काशीपुर के चंद वंशजों द्वारा पूजन की परंपरा को आगे बढ़ाया गया। गढ़वाल में नंदा राजजात यात्रा तथा कुमाऊं में नंदा सुनंदा के आयोजन उत्तराखंड को एक सूत्र में पिरोते हैं। पूरे उत्तराखंड में यह पर्व अलग-अलग अंदाज में मनाया जाता है.

जानकार बताते हैं कि एक बार मां नंदा सुनंदा अपने ससुराल जा रही थीं. तभी राक्षण रूपी भैंस ने नंदा सुनंदा का पीछा किया. जिनसे बचने के लिए मां नंदा सुनंदा केले के पेड़ के पीछे छुप गईं. तभी वहां खडे़ बकरे ने उस केले के पत्तों को खा लिया. जिसके बाद राक्षण रूपी भैंस ने मां नंदा सुनंदा को मार दिया.  ऐसा माना जाता है कि मां नंदा और सुनंदा साल में एक बार अपने मायके यानी कुमाऊं जरूर आती हैं. यही कारण है कि अष्टमी के दिन यानी आज कुमाऊं के विभिन्न स्थानों पर मां नंदा और सुनंदा की प्रतिमा तैयार कर प्राण प्रतिष्ठा की जाती है. प्राण प्रतिष्ठा के बाद समझा जाता है कि मां नंदा सुनंदा अपने मायके पहुंच गई हैं.