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रिपोर्ट – दीपक नौटियाल
स्थान -उत्तरकाशी
सीमांत उपला टकनौर क्षेत्र मे दो दिनों से सेलकू पर्व के उल्लास से सराबोर है। बीते दिन से शूरू हुआ सेलकू मेले में लोक देवता समेश्वर का डोलीनृत्य और सामूहिक नृत्यों का दौर रातभर जारी रहा। ग्रामीणों ने इस अनूठे सालाना उत्सव में हिमालयी दुर्लभ फूलों को लोक देवता समेश्वर को समर्पित कर देवता से अपनी समस्याओं का समाधान तथा आशीर्वाद प्राप्त किया। बड़ी संख्या में देशी-विदेशी पर्यटक जिले के इन ‘वाईब्रेंट विलेज‘ की जीवंतता को दर्शाने वाले इस अद्भुत आयोजन के साक्षी बने।गंगा के उद्गम क्षेत्र में स्थित और तिब्बत की सीमा के निटवर्ती उत्तरकाशी जिले की उपला टकनौर पट्टी में गंगा का मायका मुखवा, कल्पकेदार-धराली, झाला, जसपुर, पुराली सहित आठ गांव आते हैं। उपला टकनौर क्षेत्र में प्रकृति ने जमकर समृद्धि और साैंदर्य उडेला है। गंगोत्री धाम से लेकर भारत का स्विट्जरलैण्ड कहा जाने वाला हर्षिल देश-दुनिया में विख्यात हैं। ख्ेाती-बागवानी, तीर्थाटन-पर्यटन ने इस इलाकों को आर्थिक रूप से समृद्धिशाली बनाया है
प्रकृति के साथ ही इस क्षेत्र की सांस्कृतिक विरासत भी विशिष्ट और विलक्षण है। इस क्षेत्र में मनाया जाने वाला ‘सेलकू‘ (शाब्दिक अर्थ-सोयेगा कौन) पर्व इसका अनूठा उदाहरण है। क्षेत्र के मूल निवासी ‘बुढेरों‘ का पारंपरिक त्यौहार ‘सेलकू‘ हर साल भाद्रपद के मासांत की रात से अश्विन मास के पहले दिन तक आयोजित होता है।क्षेत्र के इतिहास एवं संस्कृति पर गहरी पकड़ रखने वाले पूर्व प्रधानाचार्य और गंगोत्री के वयोवृद्ध रावल विद्या प्रसाद सेमवाल बताते हैं कि दीवाली के रूप में मनाया जाने वाले सेलकू पर्व के पीछे इस क्षेत्र के निवासियों का अतीत में तिब्बत से गहरा करोबारी संबंध एक प्रमुख वजह माना जाता है। अश्विन मास तक घाटी वाले इलाकों से ताजा अनाज व अन्य सामग्री इस सीमांत इलाकें में उपलब्ध हो जाती थी और इसी बीच बुढेरा व्यापारियों के लाव-लश्कर कोे नेलांग दर्रे के रास्ते तिब्बत पहॅुचाने के लिए बुग्यालों से चरवाहों के साथ लौटी बकरियां व घोड़े मुहैया हो जाते थे। सरहदों पर बेरहम सर्दी का पहरा बैठने से पहले बुढेरे व्यापारी तिब्बत की ज्ञानिमा मंडी में कारोबार में जुटे रहते थे और इसी दौरान उनके परिवार भी शीतकालीन प्रवास हेतु निचली घाटियों में चले जाते थे। इस बीच दीवाली का पर्व गुजर जाया करता था। लिहाजा ऐसा माना जाता है कि बुढेरों ने अपनी कारोबारी सहूलियतों और सर्द मौसम की दुश्वारियों को देखते हुए तिब्बत रवाना होने से ठीक पहले ‘सेलकू‘ पर्व के रूप में दीवाली मनाने का चलन शुरू किया।तिब्बत के साथ इस क्षेत्र के दर्रों के जरिए होने वाला कारोबार 1962 के भारत-चीन युद्ध के बाद बंद पड़ा है। लेकिन पीढियों से जारी इस अनूठी विरासत के प्रति बुढे़रों का प्रबल आग्रह और लोक परंपराओं के प्रति गहरा अनुराग अभी तक बदस्तूर कायम है। स्थानीय निवासियों की लोक देवता समेश्वर में अटूट आस्था है। लोक मान्यता है कि समेश्वर देवता कुल्लू-कश्मीर क्षेत्र से यहां आए और यहीं के होकर रह गए। देवता के आह्वान के लिए सेलकू में गाए जाने ‘कफुआ‘ गीत में इन मान्यताओं का विस्तार से वर्णन सुनने को मिलता है।अबकी सेलकू मेले को देखने देश-विदेश से कई लोग इस इलाके के गांवों में पहॅुंचे। पंरपरानुसार सभी घरों में इस त्यौहार के लिए मक्की से आटे से बने विशेष पकवान द्यूड़ा बनाए गए। बीती सायं से ही मुखवा-धराली सहित अन्य गांवों में ग्रामीण देवदार के छिल्लों से बने ओला‘ (मशाल) के साथ देवता के प्रांगण में इकट्ठा होकर सेलकू के जश्न में जुटने लगे थे। उत्सव स्थल पर मुग्ध कर देने वाले रंगों व सुगंधों से भरपूर ब्रह्मकल, रामजयाण, जटामासी, लेसरू सहित अनेक प्रकार के दुर्लभ हिमालयी फूलों को बिछाया गया था। फूलों के इस बिछौने पर समेश्वर का डोलीनृत्य और रासो-तांदी जैसे सामूहिक लोकनृत्यों के साथ रात में उत्सव पूरे शवाब पर पहॅूंुचा। देवता द्वारा फूलों को ग्रहण करने के बाद इन्हें भेंट-प्रसाद के रूप में ग्रामीणों व मेहमानों में बांटा गया। आज दोपहर बाद फिर से लोकनृत्यों और डोली नृत्य के बाद लोक देवता समेश्वर के पश्वा (मनुष्य जिस पर देवता अवतरित होता है)
ने डांगरों (फरसों) की तीखी धार पर चलकर ‘आसन‘ लगाया तो ग्रामीण निहाल हो उठे। लोक देवता ने इस मौके पर ध्याणियों (गांव की ब्याहता बेटियों) को रक्षा का वचन दिया और ग्रामीणों की समस्याओं के समाधान सुझाते हुए गांव व इलाके की खुशहाली का भरोसा दिलाया। लोक देवता का आशीर्वाद और फूलों की भेंट-प्रसाद वितरण के साथ ही इस बार का ‘सेलकू‘ आज देर सायं को संपन्न हो गया।क्षेत्रीय विधायक सुरेश चौहान भी आज ग्रामीणों के साथ सेलकू के उल्लास में शामिल हुए। उन्होंने कहा कि जीवट से भरपूर बुढेरों का यह जीवंत त्यौहार इस इलाके की समृद्ध विरासत है। जिसे संजोए रखने के प्रति नई पीढी का उत्साह सराहनीय है